धुआ
आसमान में तैरता है भ्रम
हुआ मुहजोर मौसम
टपकती है ओस संशय की
सतह से सोखता है मन
बनाया था जो पुतला
समझा जिसे स्वरुप
बिगड़ जाता है
मैं खुद को समझने की चाह में रोज़ लिखता हूँ
ढालता हूँ खुद को किसी विचार में
विचार
जो लिए होते है उधार में
उधार चुका दिए जाने के बाद बचता है धुए का बादल
जिसे अपने कंकाल में संभाले
फिर करता हूँ खुद को किसी विचार के हवाले
फिर धुआ हो जाने तक
टोह अपनी पाने तक- धुर्जटा