सोचता हूँ मैं मगर
जोर से सोचूं अगर तो ढूँढ लूँगा हल कई
जोर देने का मगज पर मूड ही बनता नहीं
सोचता हूँ की ठहर जाऊं किसी इक बात पर
रिस्क भी तो ले के देखूं जान रख कर ताक पर
इक अदद ये ज़िन्दगी है कुछ तो इस के साथ हो
इतनी बातें सोच ली है सच कोई इक बात हो
छोड़ दूं क्या इस शहर को की नयी शुरुआत हो
रिस्टार्ट कर डालूँ सभी कुछ बस मे जो ये बात हो
झोंक डाला जायेगा सब अब जो चिंगारी जले
फैसला हो जाये मंजिल का तो उस जानिब चलें
चाह होती है नयी हर दिन जो होती है सहर
बेचैनियों से वास्ता पड़ता है फिर हर इक पहर
अब किसी के मशवरे का भी नहीं होता असर
“कुछ न सोचो…कुछ न सोचो ”
सोचता हूँ मैं मगर – धूर्जटा